Biography of Swami Vivekananda in Hindi | स्वामी विवेकानंद की प्रेरक जीवनी
हेल्लो फ्रेंड्स, आज यहाँ हम प्रस्तुत कर रहे है भारत के प्रभावशाली आध्यात्मिक व्यक्तित्व के धनी Swami Vivekananda की प्रेरणादायक जीवनी ।
हमें पूर्ण विश्वास है की यह Biography आप सभी पाठकों को बहुत पसंद आएगी और आप सभी को प्रेरित भी करेगी तो चलिए बिना देर किये शुरू करते है Swami Vivekananda की Biography Hindi में ।
Swami Vivekanada Biography in Hindi
हमारा देश भारत सदियों से महापुरुषों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रहा है । पृथ्वी के इस पावन भू-भाग में ऐसे कई मनीषी पैदा हुए जिन्होंने अपने चिंतन और दर्शन से न केवल भारत को बल्कि दुनिया को भी गौरवान्वित किया, ऐसे ही महापुरुषों में से एक थे Swami Vivekananda ।
स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन, संस्कृति, धर्म, चिंतन और देश प्रेम की जीवंत प्रतिमूर्ति थे । वैश्विक भाईचारे का प्रबल समर्थन करते हुए उन्होंने दुनियाभर को भारतीय संस्कृति और दर्शन के मूल आधार अध्यात्म और मानव मूल्यों से परिचय करवाया ।
Swami Vivekananda के दर्शन और चिंतन में समाहित अध्यात्म, धर्म, ऊर्जा, समाज, संस्कृति, देश प्रेम और विश्व बंधुत्व में जिस प्रकार का मजबूत समन्वय रहा है, ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास के संभवतः किसी व्यक्तित्व में देखने को नहीं मिलता है ।
इन्हीं सब गुणों और फिर उन सभी गुणों के बीच समन्वय के कारण विवेकानन्द के अंतर्मन में जो ऊर्जा प्रस्फुटित हुई, वही उनके विराट व्यक्तित्व का गवाह बना ।
स्वामी विवेकानन्द का प्रारंभिक जीवन (Early life of Swami Vivekananda)
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था, बचपन में उनका नाम नरेन्द्र रखा गया । उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था । विश्वनाथ दत्त अपने समय के कोलकाता हाई कोर्ट के एक सफल और नामी वकील थे, वह अंग्रेजी और फारसी के ज्ञाता भी थे ।
माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक प्रवृति की और बुद्धिमान महिला थीं, उन्हें महाभारत और रामायण जैसे धार्मिक ग्रंथों में पारंगत हासिल था । वह अंग्रेजी की भी अच्छी ज्ञाता थीं । ऐसे में स्वाभाविक था कि बालक नरेन्द्र को जहाँ घर में ही पाश्चात्य अंग्रेजी भाषा का प्रारंभिक ज्ञान मिला वहीँ उन्हें अपनी माँ से हिन्दू धर्म और संस्कृति को भी करीब से समझने का मौका मिला ।
माँ की छत्रछाया में बालक Narendra पर अध्यात्म का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वह घर में ही ध्यान में तल्लीन हो जाया करते थे । कहा जाता है कि एक दिन घर में ही ध्यान में वह इतने तल्लीन हो गए थे कि घर वालों ने कमरे का दरवाजा तोड़कर जब उन्हें जोर-जोर से हिलाया तब कहीं जाकर उनका ध्यान टूटा ।
आगे जाकर यही बालक दुनियाभर में ध्यान, अध्यात्म, राष्ट्रवाद, हिन्दू धर्म और संस्कृति का वाहक बना और स्वामी विवेकानन्द के नाम से मशहूर हुआ ।
छह वर्ष की अवस्था में बालक नरेन्द्र का दाखिला स्कूल में कराया गया । बात 1877 की है जब वह तीसरी कक्षा में पढ़ रहे थे । उनके परिवार को किसी कारणवश अचानक रायपुर जाना पड़ा, परिस्थितिवश बालक नरेन्द्र की पढ़ाई बीच में ही बाधित हो गई । फिर दो वर्ष बाद उनका परिवार कोलकाता वापस लौटा, परन्तु ईश्वर की कृपा और बालक नरेन्द्र के कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए स्कूल ने उन्हें फिर से दाखिला दे दिया । बालक नरेन्द्र ने भी समय न गंवाते हुए पढ़ाई में इतना ध्यान लगाया कि उन्होंने तीन वर्ष का पाठ्यक्रम एक वर्ष में ही पूरा कर लिया ।
ईश्वर और पढ़ाई के प्रति समर्पण का ही परिणाम था कि कॉलेज में प्रवेश के लिए हुए परीक्षा में नरेन्द्र विशेष योग्यता के साथ उतीर्ण हुए और उन्हें कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला मिला । उस समय प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रधानाचार्य डब्लू. डब्लू. हेस्टी थे वे युवा नरेन्द्र की प्रतिभा से काफी प्रभावित थे, उन्होंने एक बार कहा भी था ‘मैं कई देशों में गया हूं और मेरे कई प्रिय विद्यार्थी भी हैं परन्तु मैंने नरेन्द्र जैसा प्रतिभावान और संभावनाओं से भरा शिष्य नहीं देखा’ ।
विद्यार्थी जीवन में नरेन्द्र जॉन स्टुअर्ट, हर्बर्ट स्पेंसर और ह्यूम के विचारों से प्रभावित थे । उनके अध्ययन से युवा नरेन्द्र के विचारों में काफी बड़ा परिवर्तन आया । इसी दौरान उनका झुकाव ब्रह्म समाज के प्रति हुआ, सत्य जानने की तीव्र आकांक्षा के कारण वे ब्रह्म समाज के नेता महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर के संपर्क में आए ।
एक दिन युवा नरेन्द्र ने देवेन्द्र नाथ ठाकुर से पूछा, ‘क्या आपने ईश्वर को देखा है?’ नरेन्द्र के इस सवाल से वे अचंभित हो गए । युवा नरेन्द्र की जिज्ञासा को शांत करने के लिए उन्होंने नरेन्द्र को रामकृष्ण परमहंस के पास जाने की सलाह दी, Ramakrishna Paramahamsa उस समय कोलकाता के दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में पुजारी थे ।
हालाँकि नरेन्द्र अपने कॉलेज के प्रधानाचार्य विलियम हेस्टी से रामकृष्ण परमहंस के बारे में सुन चुके थे परन्तु उस समय उनका ध्यान रामकृष्ण परमहंस के प्रति आकर्षित नहीं हुआ था, अब जब देवेन्द्र नाथ ठाकुर से जब उन्होंने उनका उल्लेख सुना तो उन्होंने परमहंस से मिलने का निश्चय किया और उनके पास पहुंच गए ।
यहां भी उन्होंने परमहंस से एक ही सवाल किया कि क्या उन्होंने ईश्वर को देखा है? युवा नरेन्द्र के सवाल का जवाब देते हुए रामकृष्ण परमहंस ने कहा, ‘हाँ देखा है और बात भी किया है, ठीक वैसे ही जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूं और तुझसे बात कर रहा हूं’ ।
रामकृष्ण परमहंस के विचारों से युवा नरेन्द्र काफी प्रभावित हुए, वे अब बराबर दक्षिणेश्वर मंदिर जाने लगे और रामकृष्ण परमहंस के साथ उनका रिश्ता मजबूत होता चला गया ।
स्वामी विवेकानन्द का आध्यात्मिक सफ़र (Spiritual journey of Swami Vivekananda)
वर्ष 1884 में नरेन्द्र के पिता की मृत्यु हो गई, घर में आर्थिक संकट के बादल छा गए । पिता की मृत्यु के पश्चात उन्होंने बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और कानून की पढ़ाई करने लगे ।
उस समय उनकी गरीबी का आलम यह था कि वे फटे-पुराने कपड़े पहनकर और बिना जूते के कॉलेज जाते थे परन्तु इस दरिद्रता में भी उनका ईश्वर और अध्यात्म के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ, नरेन्द्र और रामकृष्ण परमहंस के बीच निकटता बढती ही गई ।
वर्ष 1885 में रामकृष्ण परमहंस कैंसर से पीड़ित हो गए और अगले ही वर्ष वे स्वर्ग सिधार गए, उसके बाद नरेन्द्र ने वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की । हालाँकि बाद में इसका नाम रामकृष्ण मठ कर दिया गया ।
रामकृष्ण संघ की स्थापना के कुछ दिनों उपरांत युवा नरेन्द्र ने विरजा होम संस्कार कर ब्रह्मचर्य और त्याग का व्रत लिया और वे नरेन्द्र से स्वामी विवेकानन्द हो गए । वर्ष 1888 तक वे वराहनगर में ही रहे और उसके बाद वे भारत भ्रमण पर निकल पड़े ।
वाराणसी, अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृन्दावन और हाथरस होते हुए वे हिमालय की ओर निकल पड़े । हाथरस रेलवे स्टेशन पर ही उन्होंने स्टेशन मास्टर शरतचंद्र गुप्त को दीक्षा दी और उन्हें अपना पहला शिष्य बनाते हुए उन्हें सदानंद नाम दिया ।
वर्ष 1890 में स्वामी जी वापस वराहनगर पहुंचे । फ़रवरी 1891 में स्वामी जी एकांगी हो गए और दो वर्ष तक परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते रहे । इस भ्रमण के दौरान वह राजस्थान के राजपूत राजघराने के संपर्क में आए, अलवर और खेतड़ी के महाराज ने उनसे दीक्षा ली । राजस्थान की यात्रा के बाद वे मुंबई होते हुए दक्षिण भारत की यात्रा पर निकल गए ।
23 दिसम्बर 1892 को स्वामी जी कन्याकुमारी पहुंचे, वहां वह तीन दिनों तक सुदीर्घ और गंभीर समाधि में रहे । वहां से वापस लौटकर वे राजस्थान के आबू रोड में निवास करने वाले अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी तुर्यानंद से मिले ।
इस मुलाकात में उन्होंने अपनी वेदना को स्पष्ट करते हुए कहा था, ‘मैंने पूरे भारत का भ्रमण किया है । देश की दरिद्रता और लोगों के दुखों को देखकर मैं बहुत व्यथित हूं, अब मैं इनकी मुक्ति के लिए अमेरिका जा रहा हूं’ । सर्वविदित है कि स्वामी जी की इस अमेरिका यात्रा के बाद दुनिया भर में भारत के प्रति सोच और विचार में कितना बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन आया था ।
स्वामी जी की अमेरिका यात्रा और शिकागो भाषण (Swami Vivekananda’s speech in Chicago)
विश्व धर्म संसद में शामिल होने के लिए 31 मई 1893 को स्वामी विवेकानन्द मुंबई से अमेरिका के लिए रवाना हुए । वह कठिन समुद्री यात्रा करते हुए श्रीलंका, पनामा, सिंगापुर, हांगकांग, कैंटन, नागाशाकी, ओसाका, क्योटो, टोक्यो, योकोहामा होते हुए जुलाई के अंत में शिकागो पहुंचे ।
वहां जाकर उन्हें पता चला कि सितम्बर के पहले हफ्ते में धर्म संसद शुरू होगा, लेकिन स्वामी जी यह जानकर परेशान हो गए कि यहां सिर्फ जानी-मानी संस्थाओं के प्रतिनिधियों को ही बोलने का मौका मिलेगा ।
इस समस्या से निपटने के लिए पहले उन्होंने मद्रास के एक मित्र से संपर्क किया परन्तु उन्हें निराशा हाथ लगी, फिर उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट से संपर्क किया । प्रोफेसर राइट ने स्वामी जी को हार्वर्ड में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया ।
स्वामी जी के हार्वर्ड में दिए भाषण से प्रोफेसर राइट इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने स्वामी जी से कहा कि आपसे परिचय पूछना वैसा ही है जैसे सूर्य से यह पूछा जाए कि वह किस अधिकार से आकाश में चमक रहा है ।
इसके बाद प्रोफेसर राइट ने धर्म संसद के अध्यक्ष को पत्र लिखा कि इस महापुरुष को किसी संस्था की तरफ से नहीं बल्कि भारत के प्रतिनिधि के तौर पर धर्म संसद में शामिल होने की अनुमति देने की कृपा करें.
11 सितम्बर 1893 को शिकागो में धर्म संसद की शुरुआत हुई । धर्म संसद को संबोधित करने की जब Swami Vivekananda की बारी आई तो वे थोड़ा घबरा गए और उनके माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी । वहां उपस्थित लोगों को लगा कि भारत से आया यह युवा संन्यासी कुछ बोल नहीं पाएगा, तब अपने आप को संयमित करते हुए स्वामी जी ने अपने गुरु का ध्यान किया और इसके बाद जो उनके मुंह से निकला उसे धर्म संसद सुनती रह गई ।
इस भाषण में स्वामी जी के पहले बोल थे – अमेरिका के मेरे भाइयों और बहनों । स्वामी जी के प्रेम के इस मीठे बोल से सभी अचंभित रह गए और लगभग दो मिनट तक सभागार तालियों की गडगडाहट से गूंजता रहा, इसके बाद स्वामी जी ने अध्यात्म और ज्ञान से भरा ऐसा ओजस्वी भाषण दिया कि वह भाषण (Speech) इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया ।
शिकागो विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए भाषण में जहाँ वैदिक दर्शन का ज्ञान था वहीँ उसमें दुनिया में शांति से जीने का संदेश भी छुपा था, अपने भाषण (Speech) में स्वामी जी कट्टरतावाद और सांप्रदायिकता पर जमकर प्रहार किया था ।
इसके बाद जितने दिन तक धर्म संसद चलती रही स्वामी जी ने दुनिया को हिन्दू धर्म और भारत के बारे में वो ज्ञान दिया जिसने भारत की नई छवि बना दी । धर्म संसद के बाद स्वामी जी का न केवल अमेरिका में बल्कि दुनियाभर में आदर बढ़ गया । हाथ बांधे हुए उनकी तस्वीर ‘शिकागो पोज’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया, ऐतिहासिक भाषण की उनकी इस तस्वीर को थॉमस हैरिसन नाम के फोटोग्राफर ने अपने कैमरे में उतारा था ।
धर्म संसद समाप्त होने के बाद अगले तीन वर्षों तक Swami Vivekananda अमेरिका और ब्रिटेन में वेदांत की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करते रहे । 15 जनवरी 1897 को स्वामी जी अमेरिका से श्रीलंका पहुंचे जहाँ उनका जोरदार स्वागत हुआ ।
इसके बाद वे रामेश्वरम पहुंचे और रेल मार्ग से कोलकाता की तरफ प्रस्थान किया, पूरे रास्ते लोग उन्हें देखने और सुनने के लिए भारी संख्या में जमा होते रहे । लोगों को संबोधित करते हुए स्वामी जी ने विकास को केंद्र में रखा । वे समझ चुके थे कि अपने देश को अध्यात्म से इत्तर विकास की सख्त जरूरत है ।
कोलकाता वापस लौटने पर 1 मई 1897 को Swami Vivekananda ने रामकृष्ण मिशन की नींव रखी, Ramakrishna Mission का मुख्य उद्देश्य नए भारत के निर्माण के लिए अस्पताल, स्कूल, कॉलेज और साफ़-सफाई के क्षेत्र में कदम बढ़ाना था ।
अब तक स्वामी विवेकानन्द देश के नौजवानों के लिए आदर्श बन चुके थे, वर्ष 1898 में स्वामी जी ने बेलूर मठ की स्थापना कर भारतीय जीवन दर्शन को एक नया आयाम प्रदान किया ।
स्वामी विवेकानन्द ने भारत में अपनी यात्राओं का क्रम जारी रखा । वहीँ दूसरी ओर एक बार फिर वे अपनी दूसरी विदेश यात्रा पर 20 जून 1899 को अमेरिका के लिए रवाना हुए, स्वामी जी ने कैलिफोर्निया, संफ्रान्सिस्को, अल्मेडा आदि स्थानों पर आध्यात्मिक केंद्र खोले और अपने गुरुभाई स्वामी तुर्यानंद को वहां का प्रभार सौंपा ।
जुलाई 1900 में स्वामी जी पेरिस गए जहाँ वह ‘कांग्रेस ऑफ दी हिस्ट्री रीलिजंस’ में शामिल हुए । लगभग तीन महीने पेरिस में रहकर विएना, कुस्तुन्तुनिया, एथेंस और मिस्त्र की यात्रा करते हुए वे दिसम्बर में भारत लौटे ।
भारत में भी उनकी यात्रा का क्रम निरंतर जारी रहा, 4 जुलाई 1902 को अल्पायु यानि केवल 39 वर्ष की अवस्था में स्वामी जी ने बेलूर मठ में अपना देह त्याग दिया ।
मानवता और राष्ट्र को स्वामी विवेकानन्द का योगदान (Swami Vivekananda’s Contribution to Humanity and Nation)
अपने संक्षिप्त जीवनकाल में Swami Vivekananda ने भारत के युवाओं में जिस आत्मविश्वास का संचार किया उसे आने वाली अनेक पीढ़ियाँ याद रखेंगी और मार्गदर्शन पाती रहेंगी ।
उनका कहना था – ‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ. अपने मानव जन्म को सफल (Successful) बनाओ और तब तक नहीं रूको जब तक लक्ष्य (Goal) प्राप्त न कर लो’ ।
वास्तव में, स्वामी विवेकानन्द केवल एक संत ही नहीं, एक महान दार्शनिक (Philosopher), एक महान देशभक्त, विचारक और लेखक थे । वह धार्मिक आडम्बरों और रुढियों के मुखर विरोधी थे ।
उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केंद्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था । देश की और यहां के लोगों की मार्मिक दशा को देखकर व्यथित होते हुए स्वामी जी ने एक बार विद्रोही बयान तक दे डाला था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी-देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी-देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए ।
Swami Vivekananda का मानना था कि हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिंतकों के विचारों का निचोड़ पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामी जी दुनिया के हर कोने के लोगों की जरूरतों को समझ चुके थे, यही कारण था कि वह जहाँ अमेरिका और यूरोप में अध्यात्म की बात करते थे तो भारत में विकास की बात करते थे ।
वे जानते थे कि विदेशों में भौतिक विकास तो है और उसकी भारत को जरूरत है, लेकिन वह उस विकास और समृद्धि को मांग कर नहीं बल्कि अपने बलबूते प्राप्त करने के हिमायती थे ।
स्वामी जी का मानना था कि हमारे पास पश्चिम के देशों से ज्यादा बहुत कुछ है और जो हम उन्हें दे सकते हैं, परन्तु इसके लिए पहले हमें अपने संसाधनों को विकसित करना होगा ।
इस विकास के क्रम में स्वामी जी देश के युवाओं का बहुत बड़ा योगदान चाहते थे । इसलिए उन्होंने देश में मैकाले शिक्षा पद्धति का विरोध किया था, वे कहते थे कि इस शिक्षा पद्धति का उद्देश्य केवल बाबुओं की संख्या बढ़ाना है ।
Swami Vivekananda देश में ऐसी शिक्षा पद्धति के हिमायती थे जिससे देश के बालकों और युवाओं का सर्वांगीण विकास हो सके । वे सैद्धांतिक शिक्षा के बदले व्यवहारिक शिक्षा को उपयोगी मानते थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को चरित्र निर्माण के साथ-साथ आत्मविश्वास (Self-confidence) का सबसे बड़ा स्रोत मानते थे ।
अभी कुछ दिनों पूर्व हमारे प्रधानमंत्री ने कहा था कि अमेरिका में 11 सितम्बर की तारीख दो प्रमुख घटनाओं के लिए हमेशा याद किया जाएगा । उनका कहना था कि इस तारीख को अमेरिका में दो सदी में दो विस्फोट हुए थे, एक विस्फोट मानवता के कल्याण के लिए था तो दूसरा विस्फोट इसके ठीक विपरीत मानवता को कलंकित करने के लिए ।
नरेन्द्र मोदी का स्पष्ट संकेत 11 सितम्बर 1893 को Swami Vivekananda को Chicago में दिया गया विश्व प्रसिद्ध भाषण (World Famous Speech) था तो वहीँ दूसरी ओर 11 सितम्बर 2001 को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुआ आतंकवादी हमला था ।
Swami Vivekananda Chicago Speech in Hindi
स्पष्ट है, स्वामी विवेकानन्द ने अपने चिंतन और दर्शन से देश और दुनिया को वह सबकुछ दिया जिसकी सार्थकता आज भी मानव कल्याण के लिए जीवंत है । स्वामी जी देश के युवाओं के लिए हमेशा से प्रेरणास्त्रोत (Inspiration) रहे हैं और आगे भी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्त्रोत रहेंगे, हम अगर उनके बताए मार्ग पर चलते रहे तो भारत को विश्व गुरु बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं सकती ।
तो मित्रों यह थी Swami Vivekananda की Life Story । हमें आशा है की आपको Swami Vivekananda के जीवन से और उनकी इस Hindi Biography से बहुत ही प्रेरणा और उर्जा हासिल हुई होंगी और आप स्वामी जी को अपना आदर्श मानते हुए उनके दिखाए हुए रास्ते पर चल कर एक महान जीवन व्यतीत करेंगे ।
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